घर पर पुरानी पेटी लेकर बैठा था,पुरानी पेटी जो लगभग हर घर में होती है, जिसमें विद्यार्थी जीवन की किताबें कापियां,नोट्स कुछ उर्दू,अरबी पत्रिकाएं जिसमें उस ज़माने के कुछ लेख छपे थे, अरबी ज़ुबान में लिखे गए मेरे पहले लेख पर मेरी नज़र पड़ती है, अल सौतुल इस्लामी नामक अरबी पत्रिका का पहला संस्करण था, मेरे नाम से ईद उल अजहा से संबंधित एक लेख छपा था जिसका मेटर मेरा था, बाक़ी सब कुछ मेरे अरबी के उस्ताज का था, मेरी हौसला अफजाई के लिए हज़रत ने मेरे मजमून को रिसाले में जगह दी थी. लेखक के तौर पर मेरा नाम “ग़ुलाम सैय्यद अली अल_बस्तवी” लिखा था ।
तालीबे इल्मी के कुछ नोट्स बुक पलटने लगा, जगह जगह दस्तख़त किए हुए था जिसमें “बस्तवी” नाम के हिस्से के तौर पर लिखा था।
अरबी उर्दू शब्दकोश निकाला,जिसकी दफ्ती टूट चुकी थी, बस यूं ही उसे पलटने लगा, एक जगह लिखा था
“बस्तवी साहब इसे जब जब देखेंगे मुझे याद करेंगे” ।
बात तो सही लिखी थी मैंने जैसे ही देखा लिखने वाले की तस्वीर मेरे ज़हन में आ गई, वह मेरा एक क्लासमेट था, मालूम नहीं इस वक़्त कहां है ?
जगह जगह उपनाम के तौर पर बस्तवी लिखा था, मैंने बस्तवी लिखना कब और क्यों बंद किया ?? दिमाग़ पर बहुत ज़ोर डाला मगर कुछ याद नहीं आया, हां ! दिमाग़ के किसी कोने से कुछ बातें बाहर आ रहीं थीं:
दर्जा मौलवी का शायद आखिरी साल था, एक दिन पहली घंटी पढ़ने गया, हमारे उस्ताज़ उस दिन कहीं से आए थे,और ऐसी ट्रेन से आए थे जिसने उन्हें आधी रात को या आधी रात के बाद बस्ती रेलवे स्टेशन पर छोड़ा था, मदरसा जाने के लिए कोई सवारी नहीं थी इसलिए उन्हें रात बस्ती स्टेशन पर ही गुजारनी पड़ी थी।
उन्होंने बस्ती स्टेशन पर रात का अनुभव और बस्ती के स्वस्थ, तंदरुस्त और बेरहम मच्छरों के आक्रमण और फिर उनकी क्रुरता को इतने दर्दनाक अंदाज़ में क्लास रूम में बयान किया था, कि मुझे मन ही मन में बड़ी शर्मिंदगी उठानी पड़ी थी—क्योंकि मैं “बस्तवी” लिखता था!!
उस्ताद जी ने अपनी दास्ताने गम को सुनाते सुनाते यहां तक कहा था “ बस्ती वाले मर्दूद पता नहीं कैसे रहते हैं” – बस्तवी का अर्थ भी बस्ती वाला ही होता है, हो सकता है कि मैंने यह सोच के बस्तवी लिखना छोड़ दिया कि गलती करें बस्ती के मच्छर और गाली हम क्यों खाएं?? बस्ती तो मेरा जिला ही है, बस्ती शहर आबाई वतन बिल्कुल नहीं।
दूसरा कारण यह भी निकल कर सामने आ रहा था कि मैंने कहीं पढ़ लिया था कि हिंदी के कोई महान कवि भारतेंदु हरिश्चंद जब बस्ती में आए तो बस्ती की बे रौनक़ी देख कर चीख पड़े थे:
बस्ती को बस्ती कहूं – तो काके कहूं उजाड़
पुरानी बस्ती जब जब जाता हूं, मुझे लगता है कि कवि ने ठीक ही कहा था, आज जब यह हाल है तो उस ज़माने में खुदा जाने बस्ती कैसी रही होगी,
मैंने सोचा होगा कि कोई हिंदी साहित्य का आदमी जैसे ही मेरे नाम में बस्तवी देखेगा, उसे कुछ नहीं सिर्फ यही कहेगा:
बस्ती को बस्ती कहूं – तो काके कहूं उजाड़
और मैं मज़ाक का पात्र बनकर रह जाऊंगा। हालांकि यह तमाम बातें कल्पना मात्र थीं।
एक कारण यह भी हो सकता है कि एक शायर हैं “राही बस्तवी”! जब वह पैदा हुए तो जिला बस्ती में थे, शायरी की शुरआत की तब भी बस्ती में थे, इसलिए खुद को बस्तवी लिखना शुरू कर दिया।
बचपन में मैं यही समझता था कि शायद वह बस्ती शहर के हों या कम से कम बस्ती जिला के होंगे, लेकिन मेरे तमाम आकलन गलत साबित हुए, जब यह सुना कि शायर साहब न तो बस्ती शहर के हैं और न ही बस्ती जिले के , वह तो जिला सिद्धार्थ नगर के हैं, 1998 में बस्ती जिला ने अपने लंबे चौड़े दामन को थोड़ा सा समेट लिया और शायर साहब का घर बस्ती से बाहर हो गया, लेकिन आज तक मैंने किसी को राही सिद्धार्थ नगरी कहते नहीं सुना। बेचारे बस्तवी के बस्तवी ही रह गए………! इसी तरह बहुत लोगों के साथ हुआ….और वह अपना नाम नहीं बदल पाए।
मुझे लगा कि गाँव, क़स्बा, जिला, सूबा यहां तक कि मुल्क के नाम को अपने नाम का हिस्सा नहीं बनाना चाहिए…….. क्या मालूम कब उसका नाम बदल जाए, क्या पता कि कब किसी जगह का संबंध किसी राजनेता के किसी मिथ से निकल आए…..
जो भी हो मैंने बहुत पहले ही जिला सूचक शब्द को अपने नाम से निकाल दिया था और बहुत अच्छा किया था क्योंकि जिला बस्ती उत्तर प्रदेश के नक्शे में कुछ दिन बाद नहीं मिलेगा, डेढ़ सदी से ज़्यादा पुराने इस जिले का नाम मिटने वाला है। कोई कह रहा है बस्ती शब्द मुसलमान है………….???
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