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हुज़ूर खतीबुल बराहींन की आखरी ज़ियारत

चार लोगों का काफिला था, मोटर साईकल से, जमदा शाही से, दिल धड़क रहा था, किसी ने कहा था कि हज़रत सूफी साहब (अलैहिर्रहमह) की तबियत ज़्यादा खराब हो चुकी है-----

हम जा रहे थे , अगया छाता, हज़रत के दौलत कदे पर, किसी ने कहा था कि हज़रत पर जज़्ब तारी है------

हम जा रहे थे, 2012 या तो खत्म हो चुका था या खत्म होने वाला था, ज़हन इधर उधर भटक रहा था---सोचने लगा था  सब से पहले हज़रत की ज़ियारत कब हुई थी, नाम तो बहुत पहले से सुन रखा था------पहली बार ज़ियारत कब हुई थी???

याद आया !!! मेरी उम्र यही कुछ 14-15 की रही होगी मेरे गाँव के बगल में बिरऊ पुर में हज़रत का प्रोग्राम था, 15-16 साल पहले, उस वक़्त मैं महफ़िलो में नात शरीफ पढ़ने का शौक़ रखता था, उस गांव में मेरे एक साथी मौलाना महमूद साहब ने मुझ को बुलाया था, प्रोग्राम ग़ालिबन मस्जिद की तौसीअ का था-----

हम जा रहे थे, मुझे याद आ रहा था------हज़रत की पहली ज़ियारत उसी प्रोग्राम में हुई थी---प्रोग्राम में सब लोगों की ज़ुबान पर बस यही बात की सूफी साहब आने वाले हैं,,,थोड़ी देर बाद किसी ने कहा कि सूफी साहब आ चुके हैं-----मेरा बचपना था ------सोच रहा था कि वो कैसे होंगे, मेरे दिमाग मे पीर साहबान की एक तस्वीर थी----लंबी चौड़ी पगड़ी, लहीम शहीम बदन, लंबा चौड़ा जुब्बा---ये ऐसी तस्वीर थी जो मैं बचपन से देखता आया था-----एक तस्वीर और थी पीर साहबान की जो मैंने किताबों में औलिया अल्लाह के हालात में पढ़ रखा था----सोच रहा था ये कैसे होंगे???

हम जा रहे थे, मैं सोच रहा था, प्रोग्राम चल रहा था आखिर वो वक़्त आया कि लोग नाराये तकबीर व रिसालत की गूंज में पीर साहब को स्टेज पर ला रहे थे---मैं ने देखा,मगर ये क्या ??? एकहरा बदन, सादा लिबास में, अरे इस ज़माने में भी किताबी पीर----देखा तो ऐसा लगा की इन्ही से मुरीद होना चाहिए ,---हज़रत ने स्टेज पर ही फज्र की नमाज़ अदा की , उसके बाद एलान हुआ कि हज़रत से जो लोग मुरीद होना चाहते हैं मुरीद हो जाएं---सोच रखा था कि अभी कुछ दिन बाद मुरीद होंगे----लेकिन जब ये कहा गया कि जो मुरीद होना चाहते हैं चादर पकड़ लें,,उस वक़्त मैं खुद को रोक नही सका---!!!

हम जा रहे थे, मेरे दिमाग मे एक दूसरी तस्वीर आती है, मैं अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा था, एक दिन खबर मिलती है कि हज़रत अलीगढ़ के आस पास कही ट्रैन में खो गए----मैं बहुत परेशान हुआ था---

हम अगया पहुंच गए , हज़रत की तबियत वाक़ई में बहुत खराब थी ---हज़रत घर के ऊपरी छत पर आराम कर रहे थे---अल्लाह,अल्लाह,अल्लाह का ज़िक्र आप ज़ुबान से मुसलसल जारी था----

हम हज़रत से मिले,हज़रत अल्लामा हबीबुर्रहमान साहब किबला हम लोगो को ज़ियारत करने ले गए, हम दस्त बोसी की, अज़ान हो चुकी थी, अल्लामा हबीबुर्रहमान साहब ने दस्त बोसी की तो हज़रत ने उन का हाथ पकड़ लिया, उन्होंने ने छोड़ने को कहा मगर आप ने नही छोड़ा---लेकिन जैसे ही आप ने कहा कि अब्बू नमाज़ पढ़ाने जाना जाना है जमात का वक़्त हो गया, हज़रत ने आप का हाथ छोड़ दिया-----

ये मेरी अपने पीरे तरीक़त की ज़ियारत आख़री ज़ियारत थी।।।

ग़ुलाम सैयद अली
नूर जहाँ अब्दुल मुस्तफ़ा इण्टर कॉलेज

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